ज्यों ओसवाल वंश की जन्मभूमि ओसियां गांव है त्यों ओस्तवाल वंश की जन्मभूमि ओस्तरा गांव है। आज भी पुराने ओस्तरा मैं ओस्तवाल वंश के परम आराध्य देवाधिदेव श्री पार्श्वनाथ स्वामी जी, कुलदेवी श्री सच्चिया देवी माताजी एवं श्री भैरवदेवजी के प्राचीन मंदिर विद्यमान है। यह तीर्थ स्थल पहले से ही महँ चमत्कारिक रहा है और आज भी इस तीर्थस्थल की छवि वैसी ही बनी हुई है। इस तीर्थ के जीर्णोद्धार की कहानी भी अपने आप में एक चमत्कार ही है ।
ईस्वी सन् 1997 फरवरी ये मार्च महीने मैं परम पूज्य आचार्य भगवंत श्रीमद विजय धर्मधुरंधर सूरीश्वर जी म. सा. अपने साथी मुनिराज श्री चिदानन्द विजय जी महाराज एवं धर्मकीर्ति विजय जी महाराज के साथ पहली बार जब ओस्तरा गांव के इस वीरान भूखंड पर पहुंचे थे तब उनको पहली बार तो रस्ते में और दूसरी बार भैरव दादा के सामने अत्यंत मीठी तीव्र गंध के जैसी अनुभूति हुई थी वैसी गंध की अनुभूति उन्हें कभी भी नहीं हुई। वह गंध किसी पुष्प की थी ? वे आज तक नहीं समझ पाए। क्योंकि उस समय तो वहां न कोई पुष्प था, न ही कोई धूपबत्ती, अगरबत्ती। गंध कहाँ से आ रही थी ? इसका निर्णय भी वे नहीं कर पाए। गंध की अनुभूति के साथ उसी दिन उन्हें दूसरी अनुभूति प्राप्त हुई –
जब वे भैरव दादा के पास खड़े–खड़े आराधना कर रहे थे तब उनके मन में अचानक भाव आया– जीर्णोद्धार करवाओ। उन्होंने उस भाव को सुना–अनसुना कर दिया और आराधना करते रहे। मगर जब दूसरी बार भी उनके मन में वही विचार आया तो उन्होंने कहा– बाबा ! जीर्णोद्धार करवाना मेरे वश की बात नहीं है, कारण केवल इतना ही है कि मैं किसी से भी पैसे नहीं मांग पाता हूँ और जीर्णोद्धार के लिए मुझे जिंदगी भर मांगते ही रहना पड़ेगा । कुछ क्षणों के बाद उनकी ओर से उत्तर मिला – ‘काम तुम्हारा दाम हमारा‘ बस, इन अनजाने भाव शब्दों – वचनों पर उन्होंने भरोसा किया। परिणामस्वरुप आज इस तीर्थ पर जो कुछ भी है उन्हीं के दाम और काम का परिणाम है। हाँ, उन्होंने अनेक संघों, व कई–कई उदार व्यक्तियों को इस तीर्थ के साथ जोड़ा धन सहायक के रूप में और कार्य सहायक के रूप । जीर्णोद्धार के कार्य में आचार्य भगवंत की प्रेरणा नहींवत् ही रही।
जब गुरुदेव श्रीमद विजय धर्मधुरंधर सूरीश्वर जी म. सा.यहाँ पर पहली बार पधारे थे, तब यहाँ खण्डहर जीर्णोशीर्ण पुरातन जिनालय का मात्रा शिखर था और बटुक भैरव देव जी परिवार सहित विराजमान थे मगर आज परमात्मा, गुरु, श्री सच्चियादेवी माता और श्री भैरवदेव जी की कृपा से तथा कई–कई संघों, ट्रस्टों एवं तीर्थभक्त उदार भाग्यवानों के उदार सहयोग से पुरातन जिनालय, धर्मशाला, भोजनशाला, चित्रशाला, अतिथि भवन, साधु–उपाश्रय, साध्वी–उपाश्रय, जैन विद्याशोध संसथान, श्रुत मन्दिरम्, भैरव बाल क्रीड़ा उद्यान, पक्षी सेवा सदन, गौशाला, कार्यालय आदि विद्यमान है।
इस तीर्थ भूमि पर शुरुआत से आज तक आने–जाने वाले समस्त तीर्थ यात्रियों के लिए नि:शुल्क नवकारसी, मध्याह्न एवं सायंकालीन भोजन की व्यवस्था सुचारु रूप से उपलब्ध है।
इस तीर्थ से हमारा इतना ही उद्देश्य है की देव और गुरु की भक्ति तथा जिनधर्म का प्रचार–प्रसार। इस तीर्थ ने श्री सरदारशहर में एक पुरातन जिन मंदिर के जीर्णोद्धार में भी प्रमुख रूप से कार्य करवाया है तथा भविष्य में भी ऐसे क्षेत्रों में पुरातन जिनमंदिरों का जीर्णोद्धार करवाना भी मुख्य उद्देश्य है।
श्री मणिभद्र मूल रूप से एक यक्ष हैं, जिनकी पूजा भारतीय जन करते हैं। यह छह सशस्त्र यक्षों की एक छवि है जिसमें उनका वाहन हाथी है। श्रीफल और सुखदी उनके पसंदीदा हैं।
पंजाब केशरी आचार्य श्रीमद विजय वल्लभ सूरीश्वर जी म.सा, के समुदाय के श्रुतभास्कर, पूज्य गच्छाधिपति,आचार्य भगवंत श्रीमद विजय धर्मधुरंधर सूरीश्वर जी म.सा, पूज्य गणिवर्य श्री धर्मरत् न विजय जी म.सा,पूज्य साधक मुनि श्री नवीनचन्द्र विजय जी म.सा, आदि ठाणा एवं पूज्य माताजी साध्वी श्री अमितगुणा री जी म.सा साध्वी श्री पियुषपूर्णा श्री जी म.सा, आदि ठाणा की शुभ निश्रामें एवं मगरवाड़ा तीर्थ के श्रीपूज्य यति श्री विजयसोम जी महाराज के सानिध्य में
? प्रातः मंगल मुहर्त में हवन का आयोजन हुआ। एवं प्रथम मंगल संक्रान्ति का श्रवण हुआ। संक्रान्ति धर्म सभा – 10 बजे मंगलाचरण से प्रारंभ हुई – पारम्परिक गुरु आत्म को समर्पित भक्ति गीत श्री राकेश जी जैन दिल्ली, ने प्रस्तुत किया । श्री माणिभद्रवीर इंग्लिश मीडियम स्कूल मगरवाड़ा की बालिकाओं द्वारा सुंदर स्वागत गीत प्रस्तुत हुआ ।
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