प्रस्तुत पुस्तक के विषय में इतना लिखना चाहूंगा कि इस पुस्तक के लिए मैंने जीव और अजीव तत्त्वों से संबंधित विषयों को चुना; कारण केवल इतना ही कि शासनपति अरिहंत, तीर्थंकर परमात्मा श्रमण भगवान् श्री महावीर स्वामी जी की आत्मा ने जीवमात्र के हित, कल्याण के लिए अत्यंत उपयोगी जिस आत्मिक अनंत शक्ति को प्राप्त करने के लिए घोरतम साधना की थी, उन्होंने साधना के परिणाम स्वरूप उस शक्ति को पाया भी था मगर उस शक्ति के उपयोग के लिए उन्होंने जिन विषयों को चुना, धर्मतीर्थ-चतुर्विध श्रीसंघ की स्थापना के लिए देवनिर्मित समवसरण में विराजमान होकर उपस्थित पार्षदों के सम्मुख श्री इन्द्रभूति जी, श्री अग्निभूति जी और श्री वायुभूति जी आदि ११ पंडितों से प्रथम देशना स्वरूप जो संवाद किया, उस संपूर्ण संवाद के विषय थे मात्र नव तत्त्व ही । प्रत्येक गणधर भगवंत के मन में छुपे हुए जो प्रश्न थे वे भी मात्र नव तत्त्वों से ही संबंधित थे और केवलज्ञानी श्रमण भगवान् श्री महावीर स्वामी जी ने जो उत्तर भी दिए वे भी नव तत्त्वों से ही संबंधित थे । नवतत्त्वों से संबद्ध् विषयों के यथावस्थित विस्तार को सुनकर ११ पंडितों ने अपने विद्यार्थियों के साथ दीक्षा ली थी और यूं इस धर्मतीर्थ-धर्मसंघ की स्थापना हुई थी, शुरुआत हुई थी । श्रमण भगवान् श्री महावीर स्वामी जी ने यावज्जीवन जिन विषयों का विस्तार किया वे भी नव तत्त्व ही थे, उन्होंने कभी जीव तो कभी अजीव या कभी अन्य किसी तत्त्व की मुख्य, गौण रूप से नव तत्त्वों की ही तुष्टि, पुष्टि की थी; नव तत्त्वों की समृद्धि में ही वृद्धि की थी ।
नव-तत्त्वों में से क्रमशः पहला और दूसरा तत्त्व है जीव और अजीव; और यूं लिखूं तो श्रुतस्थविर, पूर्वाचार्यों ने शेष सात तत्त्वों को इन्हीं दो तत्त्वों का विस्तार माना है ।
विजय धर्मधुरंधर सूरि